धूसर रंगों में उभरती आकृतियां
कला की दुनिया में शेखर एक कलाकार के रूप में अपनी पहचान बना रहे हैं। बिहार के जगदीशपुर(भागलपुर) में जन्मे शेखर ने वहीं से फाइन आर्ट में शिक्षा हासिल की। रांची को अपना ठिकाना बनाया और रंगों से खेलने की आदत नियमित कर ली। चेहरे पर हल्की दाढ़ी और आंखों पर चश्मा। चश्में के भीतर से झांकती आंखों में तैरती कल्पना। कल्पना को आकार देने के लिए पेंसिल के सहारे कभी पेपर तो कभी कैनवास पर उसे जीवंत करते हैं। कला कर्म के प्रति उनकी गहरी निष्ठा है। देश के कई हिस्सों में अपने चित्रों का प्रदर्शनी लगा चुके शेखर की एक प्रदर्शनी बीते साल पांच दिसंबर को दिल्ली में लगी थी।
बिहार में जन्मे होने के बावजूद शेखर की कला से झारखंडीपन दिखता है, जो उन्हें और कलाकारों से अलग करता है। कैनवास पर झारखंडी संस्कृति भी उभरती है और हजारों साल प्राचीन कला भी। यह माटी से जुड़ाव का बोधक है। विकास की विसंगतियां भी उनके चित्रों में उभरती है। चांद पर जाती दुनिया के लिए धरती कितनी सुरक्षित है? कला प्रतिरोध का शस्त्र भी रचता है। वह आनंदित ही नहीं करता, उद्वेलित भी करता है, सजग भी करता है। शेखर के कलाकर्म इसके उदाहरण हैं।
वे झारखंड की प्राचीन कला परंपरा को भी अपने कैनवास पर जगह देते हैं। हजारीबाग में हजारों साल पुरानी रॉक पेंटिंग मिली। इसका बहुत की रचनात्मक उपयोग शेखर ने अपनी एक पेटिंग में किया। त्रिभुज आकार की पेंटिंग में दो दुनिया को प्रदर्शित किया गया है। यह गणित और कला के संबंध को भी रेखांकित करता है।
एक पेंटिंग में पैर के तलवे दिखाए गए है। वह प्रतीक के विकास के बढ़ते चरण का। गांव, शहर के बढ़ते दायरे और दुनिया को जोड़ने वाले टॉवर। तो एक पेंटिंग में दो आदिवासी महिलाओं को चित्रित करते हैं। धूसर रंगों का इस्तेमाल। पीले और काले रंग का संयोजन। पृष्ठभूमि में भूरे रंग का प्रयोग। रंग विज्ञान जानने वाले जानते हैं हर रंग की अपनी विशेषता है। मनोभावों का चित्रण यहां शब्द के बजाए रंगों से किया जाता है।(संजय कृष्ण, दैनिक जागरण,रांची)